वीर सावरकर को लेकर नहीं बदली बचपन की छाप 


- आजादी के युद्ध में उनका रहा है अहम योगदान
- राहुल ने कहा मैं राहुल सावरकर नहीं, तो मुझे बुरा लगा
बात 1990-91 की है। उन दिनों में मैं तरुण था और पोर्ट व्लेयर में रह रहा था। अपने उस काला पानी प्रवास के दौरान में शायद मैं पचासों बार सेल्यूलर जेल जाता था। दुनिया की सबसे क्रूरतम जेलों में से एक थी सेल्यूलर जेल। यहां की सजा का नाम सुनते ही बड़े से बड़ा अपराधी कांपने लगता था। तीन जेलों के बीच वाली बिल्डिंग के तीसरी मंजिल पर सबसे अलग बंद थे वीर विनायक दामोदर सावरकर। इस जेल में केवल उनका ही सेल था जिस पर पहले लोहे का गेट लगा है और फिर कोठरी का गेट। मैं अक्सर उस सेल में जाता। अपने आप को अंदर से बंद कर लेता और कल्पना करता कि वीर सावरकर हूं। अभिनव भारत के संस्थापक। गुरिल्ला युद्ध में पारंगत ओर मदनलाल ढींगरा के साथी। वो अंग्रेजों के लिए मुसीबत थे और नासिक षड़यंत्र के लिए अंग्रेजों ने उन्हें दस साल सेल्यूलर जेल में रखा। वे सेल्यूलर जेल से भी भाग निकले थे लेकिन पकड़े गये। इससे पहले भी वो फ्रांस से भाग निकले थे, लेकिन वहां भी पकड़े गये। 1920 में बाल गंगाधर तिलक ने उनका पक्ष लेते हुए अंग्रेजो से दया याचिका लगाई और वीर सावरकर ने अंग्रेजी राज का विरोध न करने की बात कही और सेल्यूलर जेल से देश में आ गये। इसे ही उनकी माफी माना गया। इसके बावजूद वीर सावरकर लगातार आजादी के मूवमेंट से जुड़े रहे। उन्होंने ही सबसे पहले मुंबई में पतित पावन मंदिर की स्थापना की और इस मंदिर में छुआछूत का विरोध किया। हालांकि बाद में वो हिन्दू महासभा से जुड़ गये और हेगडेवार के संपर्क में आ गये। 1937 में उन्हें हिन्दू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। वे अखंड भारत के समर्थक थे और विभाजन के पक्षधर नहीं थे। आज जब रामलीला मैदान से राहुल गांधी ने कहा कि मैं राहुल सावरकर नहीं हूं तो मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ।  पता नहीं वीर सावरकर कैसे रहेे होंगे, उन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी या नहीं। लेकिन मेरे बाल मन पर जो वीर सावरकर के प्रति झुकाव की स्थिति है वह आज भी नहीं बदली। मैं आज भी इस वीर को आजादी का महानायक मानता हूं।