कहां हैं बचपन बचाने वाले कैलाश सत्यार्थी और स्वामी अग्निवेश?


चकाचैंध दिल्ली की अंधेरी गलियों की सुध किसे? 
-- अब होगी मौत पर गंदी राजनीति, आरोप-प्रत्यारोप पर फिर वही ढाक के तीन पात
सवा करोड़ लोगों की दिल्ली बारूद के ढेर पर बैठी है। यहां आम आदमी की जिंदगी रोज पेट पर शुरू होती है और पेट पर ही समाप्त हो जाती है। यहां छोटे-छोटे घंरौंदों में, फुटपाथों और अंधी गलियों के किसी कोने पर बड़े और सुहावने सपने पलते हैं, ये ऐसे सपने हैं जो किसी-किसी के ही सच होते हैं और अधिकांश लोग सपने देखते-देखते दम तोड़ जाते हैं। विडम्बना है कि आज भी देश के करोड़ों लोगों का सपना महज दो वक्त की भरपूर रोटी का है। देश के 20 करोड़ लोग भूखे ही सो जाते हैं। ऐसे में दूर-दराज के राज्यों से, बंग्लादेश और नेपाल से आए लाखों बच्चे दिल्ली में गुजर-बसर के लिए आते हैं। इनकी सुबह और शाम काम ही काम में बीतती है और बदले में दो जून की रोटी मिलती हैं। ऐसी ही रोटी की तलाश में बिहार और बंगाल से बड़ी संख्या में बच्चे और नौजवान युवा रानी झांसी रोड स्थित अनाज मंडी के बैग और प्लास्टिक के खिलौने बनाने वाली फैक्टरी में आए थे। अधिकांश युवाओं की मौत दम घुटने से हुई। इस कारखाने के बाहर ताला लगा था। ऐसे ही ताले आजाद मार्केट, बल्लीमारन, शाहपुर जाट, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, शहादरा, सीलमपुर, इंद्रलोक, आदि इलाकों में अवैध तौर पर चल रहे कारखानों में लगे रहते हैं और अंदर छोटे -छोटे बच्चे और नौजवान काम भी करते हैं और वहीं रहते हैं। दो वक्त की रोटी के लिए यह संघर्ष अनवरत चलता है और चलता रहेगा। क्योंकि हमारे यहां भूख से बड़ा कोई दर्द नहंी है और इस दर्द की दवा ऐसे ही बंद कारखानों में मिलती है। ऐसी जगह न तो स्वामी अग्निवेश पहुंच पाते हैं और न ही बचपन बचाने वाले कैलाश सत्यार्थी। इन बच्चों की मौत पर राजनीति होना तय है लेकिन इस सवाल का जवाब कोई भी नहंी देगा कि आखिर जो बच्चे मर गये, उनका कसूर क्या था?