पहाड़ में आज भी समस्याएं पहाड़ जैसी

- 40 साल बीते, नहीं बदले पहाड़ में परिवहन के हालात
- पहाड़ में सार्वजनिक परिवहन प्रणाली नाम की चीज नहीं
- चैबट्टाखाल भ्रमण से लौट कर ग्राउंड रिपोर्ट
1980 में मैं अपनी दादी की उंगली पकड़ कर गांव की पगडंड़ी से होते हुए सड़क तक पहुंचा था। मैं बेहतर भविष्य के लिए छोटी सी उम्र में दिल्ली पढ़ने जा रहा था। मुझे आज भी एहसास है कि मेरी हथेलियों पर गरम-गरम पानी गिरने लगा तो मैंने दादी को निहारा था, ये उनके आंखों से गिर रहे बेशकीमती आंसू थे। दादी का चेहरा और उनके आंसू मुझे जीवन भर पलायन की पीड़ा की याद दिलाते हैं। हां, उस दिन बस नहीं आई। उस जमाने में चैबट्टाखाल से कोटद्वार की एक ही बस आती थी और वह नहीं आई तो हमें बस पकड़ने के लिए ज्वाल्पा देवी के नजदीक कठमोलिया के पुल पर जाना पड़ा। यहां पौड़ी से बस आती थी। हमने वहां से दिल्ली के लिए बस पकड़ी और मेरा सदा के लिए मैदान में पलायन हो गया।
22 नवम्बर 2019। मुझे अपने ननिहाल में रिश्तेदार की शादी में देहरादून से अपने महान रेलपुरुष सतपाल महाराज के विधानसभा क्षेत्र चैबट्टाखाल के जणदा देवी से दो किलोमीटर दूर स्थित बमोली गांव जाना था। 22 नवम्बर सुबह मैंने देहरादून से कोटद्वार के लिए बस पकड़नी चाही, लेकिन कोटद्वार के लिए सुबह आठ बजे कोई बस नहीं थी। मैं जेएनयूआरएम की हरिद्वार जा रही बस में सवार हो गया। इस बस की कंडक्टर एक लड़की निशा थी। निशा ग्रेजुएट है और बेरोजगारी से लड़ने के लिए कंडक्टर बन गयी। इस बस में निशा से बात करते हुए हरिद्वार के चंडी चैक पहुंचा तो वहां से कोटद्वार जाने वाली कोई बस नजर नहीं आयी। लगभग एक घंटे इंतजार करने के बाद हिमगिरि यानी निजी बस मिली। मैं इस बस में सवार हो गया। सीट सबसे पीछे वाली मिली। मैंने संतोष की सांस ही ली थी कि बस चालक ने बस लाल डांग वाले रूट यानी कच्चे मार्ग पर बस मोड़ दी। जंगल के बीच से हिचकोले खाते-खाते अंजर-पिंजर सब हिल गये। डेढ़ घंटे का सफर तीन घंटे में बीता।
पहाड़ का गेटवे यानी कोटद्वार पहुंचा तो 12 बज चुके थे। जीएमओ आफिस में पता किया तो चैबट्टाखाल के लिए बस एक बजे थी लेकिन इसका रूट जनशक्तिमार्ग यानी एकेश्वर वाला था। चूंकि मेरे पास कोई विकल्प नहंी था तो एक घंटे तक मैं शहर में भटकता रहा। दुकानदारों व कोटद्वार के स्थानीय निवासियों से पूछता रहा कि यदि कोटद्वार कण्व नगरी बन जाता है तो क्या शहर की तस्वीर और तकदीर बदल जाएगी? इसी बातचीत में एक बज गया और छोटी सी 22 सीटर बस जिसमें पैर मोड़ने से अधिक सिकुड़ने की जगह थी, तेजी से गन्तव्य की ओर चली। सतपुली तक सब ठीक रहा लेकिन सतपुली में बस खचाखच भर गयी। क्योंकि यह आखिरी बस थी। इसके बाद जो बस आनी थी वह कैंसल हो गयी। सतपुली में 15 मिनट के विश्राम के बाद ड्राइवर ने बस चला दी। कई छोटे-छोटे गांव आते रहे। सवारियां चढ़ती-उतरती रही। खिड़की से बाहर प्रकृति के अनुपम नजारे थे लेकिन बस के अंदर सांस लेने में दिक्कत थी। महिलाएं परेशान हो रही थी। कुछ हंस रही थीं तो कुछ दूसरों के कंधों में उल्टी के डर से आंखें मूंदें हुई थीं। 
यदि मैं सतपुली-पाटीसैंण से बमोली जाता तो मुझे महज 40 मिनट लगते, लेकिन बस न मिलने से मुझे एकेश्वर होते हुए जणदादेवी पहुंचने में दो घंटे अधिक समय लगा। तब शाम के पांच बज चुके थे। जब मैं जणदा देवी में उतरा तो सांझ गहराने लगी। मैं गढ़वाल की वीरांगना तीलू-रौतेली के साथ सेल्फी लेने की उत्कंठा नहीं रोक सका और मूर्ति के बलग में खड़ा हो गया। इस बीच मुझे इंतजार था कि कोई वाहन नीचे की ओर जाए तो मैं अपने ननिहाल बमोली पहुंच सकूं। लगभग आधे घंटे के बाद जब कोई वाहन नहीं मिला तो दुकानदारों से सुझाव दिया कि अब कुछ नहंी मिलेगा, बेहतर है कि सड़क के रास्ते पैदल पहुंचो। मैंने भी सोचा क्या बुरा है? इवनिंग वाॅक हो जाएगी। मैं पैदल चला, लेकिन गुलदार का भय मुझे सताता रहा। पहाड़ में सबसे खतरनाक हो गया है गुलदार। गुलदार अब कभी भी, कहीं भी धमक जाता है। पहाड़ में मानव-वन्य जीव संघर्ष निरंतर बढ़ रहा है। अलग राज्य बनने स ेअब तक लगभग 500 लोग वन्य जीवों के हमले में मारे जा चुके हैं। खैर किसी तरह से मैं रात के धुंधलके में अपने ननिहाल पहुंच गया। वह दिन तो कट गया लेकिन अभी मेरी समस्या बाकी थी। 
पहाड़ में इन दिनों अब दिन की शादी का रिवाज हो गया है। कारण, यहां दारूबाजों का आतंक है। कोई भी नहीं चाहता कि उनके शुभ कार्य में विघ्न उत्पन्न हो। इसलिए शराबियों के झगड़े-फसाद से बचने के लिए दिन की शादी का प्रचलन हो गया है। दुल्हन की विदाई के बाद मैंने ठाना कि अपने गांव चमाली जो कि वहां से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर है, वहां चलें। मेरी मां पहले से ही शादी में आ चुकी थी। मैंने मां से कहा कि चलो गांव चलते हैं। मां तैयार हो गयी । हम सड़क पर लगभग एक घंटे रहे, लेकिन कोई भी वाहन नहीं आया। मां ने कहा कि चलो पैदल चलते हैं जहां पर वाहन आएगा तो रोक लेंगे। लेकिन पांच किलोमीटर की दूरी पैदल तय करने में दिन ढल गया और रात हो गयी। कोई वाहन नहीं आया। जीवन में पहली बार मुझे अपने पर ग्लानि हुई कि मैं अपनी बूढ़ी मां को पैदल इतनी दूर ले जा रहा हूं। विकल्प नहीं था। जब हम गांव के नजदीक पहुंचे तो रात हो चुकी थी और मां को अंधेरे में कम नजर आता है। मैंने मोबाइल की रोशनी में मां को गांव की पगडंडी पर चलाया। खैर किसी तरह से हम घर पहुंचे और चैन की सांस ली।