- दलों के लिए उतने महंगे हो गये नेता, जितने गरीबों के लिए प्याज
- लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या पर अब किसी को रोना नहीं आता।
महाराष्ट्र में पिछले चार दिनों में जो कुछ हुआ, वह तीन साल पहले उत्तराखंड में घटित हो चुका है। शायद हर राज्य में ऐसा ही हो। राजनीति अब व्यापार है और इसमें हर नेता अपनी कूड़ी-पुंगड़ी दाव पर लगा कर निवेश करता है। तो उसे वसूलेगा भी। त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में पुरुषों को दारू और मुर्गा खिलाकर तो महिलाओं को बाॅयल एग, जलेबी, समोसा और कोल्ड ड्रिंक पिलाकर वोट बटोरे गये तो फिर हम कैसे लोकतंत्र की दुहाई दें और किस को दोषी माने? जनता जो भ्रष्टाचार की जननी है या नेता जो राजनीति में लाखों-करोड़ों निवेश कर हजार गुणा लाभ कमाना चाहता है। लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या के लिए दोनो ही फिफ्टी-फिफ्टी जिम्मेदार हैं। ऐसे में जब इन मूल्यों की रोज हत्या हो रही है तो किसी को भी इस पर रोना नहीं आता। हमस ब इस हत्या को देखने के आदी हो चुके हैं। कहीं कोई आवाज नहीं उठती। हम खांचों में बंटे हुए लोग हैं। हमने अपने इर्द-गिर्द निजी स्वार्थ की लक्ष्मण रेखा खींच ली है और इस रेखा के पार नहीं जाना चाहते। दुखद बात यह है कि हम पढ़े-लिखे होने का दावा तो करते हैं लेकिन जब जनसरोकारों की बात आती है तो हम सिमट जाते हैं। हमारे अंदर विरोध के स्वर नहीं फूटते। गुब्बार बाहर नहीं निकलता। हम व्यस्त हैं कि हमें क्या लेना। और नतीजा, वही नेता जो भ्रष्टाचार की कीचड़ में सना होता है तो उसके खिलाए समोसे और दारू हमें अमृत समान नजर आते हैं या हम इतने अंधे और विवेकशून्य हो जाते हैं कि अपना कीमती वोट यूं ही गंवा देते हैं। नेताओं की गलती नहीं, हमारा चुनाव गलत है। शायद यही कारण है कि हम संविधान और लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या होते हुए देख भी जोर-जोर से, फूट-फूट कर ही नहीं रोते बल्कि हमारा गला रुंधता भी नहीं। तब तक जब तक कि हम उस एहसास से न गुजरें। हां, अब हम नहीं रोते मानवीय और लोकतांत्रिक मूल्यों की होते देख, क्योंकि हमने जीना सीख लिया है अपने-अपने स्वार्थों के साथ।
लो जी, अब लोकतंत्र मंडी हो गया और हर नेता बिकाऊ